শ্রীকান্ত: দ্বিতীয় পর্ব



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Size | 23 MB (23,082 KB) |
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Format | |
Downloaded | 612 times |
Status | Available |
Last checked | 10 Hour ago! |
Author | Sarat Chandra Chattopadhyay |
“Book Descriptions: जिस भ्रमण-कथा के बीच ही में अचानक एक दिन यवनिका खींचकर विदा हुआ था, कभी फिर उसी को अपने हाथ से उद्घाटित करने की अपनी प्रवृत्ति न थी। मेरे गाँव के रिश्ते के दादाजी, वे जब मेरी उस नाटकीय उक्ति के जवाब में सिर्फ जरा मुसकराए तथा राजलक्ष्मी के झुककर प्रणाम करते जाने पर जिस ढंग से हड़बड़ाकर दो कदम हट गए और बोले, ‘अच्छा! अहा, ठीक तो है! बहुत अच्छा! जीते-जागते रहो!’ कहते हुए कौतूहल के साथ डॉक्टर को साथ लेकर निकल गए, तो उस समय राजलक्ष्मी के चेहरे की जो दशा देखी, वह भूलने की नहीं, भूला भी नहीं; लेकिन यह सोचा था कि वह नितांत मेरी ही है, दुनिया पर वह कभी किसी भी रूप में जाहिर न हो, परंतु अब लगता है, अच्छा ही हुआ, बहुत दिनों के बंद दरवाजे को फिर मुझी को आकर खोलना पड़ा। जिस अनजान रहस्य के लिए बाहर का क्रोधित संशय अविचार का रूप धारण करके बार-बार धक्के मार रहा है, यह अच्छा ही हुआ कि बंद द्वार का अर्गल खोलने का मुझे ही मौका मिला।”